Sunday, February 28, 2010
खुद जिए और प्रकृति को भी जीने दें.....
हमारे भारतीय समाज में त्यौहार हमारी संस्कृति की अटूट पहचान है। हमारे यहाँ हर मौसम के लिए त्यौहार है। जिसकी खुशियाँ हम अलग अलग तरीको से बांटते है... हर त्यौहार को मानाने के रस्मे भी अलग अलग होती है.. इनमे से कुछ ऐसे भी त्यौहार है जो अग्नि के बिना अधूरे है...जैसे होली के त्यौहार को ही ले लीजिये.... जिसमे सदियों से ही होलिका दहन की परंपरा चली आ रही है.... हम धुलंडी के एक दिन पहले सुखी लकडियाँ जुटाते है और हर चौक या गली मोहल्ले में उन्हें सजा कर रख देते है.... और जिन्हें लकडियाँ नहीं मिलती तो वे बिना कुछ सोचे पूरा का पूरा एक पेड़ काट ले आते है...ताकि उनकी होली शानदार जले.... ये कैसी परंपरा है... पुराने समय में लोग इस दिन के लिए सुखी लकड़ियाँ जमा कर रखते थे ताकि उन्हें कोई परेशानी न हो....और अगर कभी लकड़ियाँ कम भी पड़ गयी तो लोग गोबर से बने कन्डो का इस्तेमाल किया करते थे...लेकिन आज सूखे पेड़ की बात छोड़िये लोग तो हरे भरे पेड़ो को ही काट दिया करते है.... और ऐसा करने के बावजुद भी यदि लकड़िया कम पड़ती है तो लोग पुराने टायर्स जलाते है... लेकिन सवाल ये है की ये कैसा होलिका दहन ? जिसमे परम्परा की आड़ लेकर जिन्दा पेड़ो की आहुति दे दी जाती है... यह करने के बाद भी जी न भर पाए तो टायर्स को जला दिया जाता है... ऐसा करके हम प्रकृति को दोहरा नुक्सान पहुंचा रहे है.... पहला ये की इन हरे भरे पेड़ो को काटकर हम अपने आस पास के वातावरण को नुक्सान पंहुचा रहे है साथ हे इन टायर्स को जलाकर हम उस हवा को जहरीला बना रहे है जिसके बिना हम एक पल भी नहीं रह सकते.... सोचिये जरा इस परंपरा के आड़ में हमने अपनी ज़िन्दगी को कहा ला खड़ा कर दिया है.....? अब भी समय है सँभालने का त्यौहार तो आते हे है आपस में खुशियाँ बाँटने लेकिन हम खुद हे अपनी खुशियों में जहर क्यों घोले....खुद जिए और प्रकृति को भी जीने दें ......
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